६ अगस्त , १९५७

 

      मधुर मां, सामूहिक प्रार्थनाका क्या प्रभाव ओर महत्व होता '?

 

इसके बारेमें, सामूहिक प्रार्थना और उसके उपयोगके बारेमें, हम पहले ही बातचीत कर चुके है । मेरे ख्यालसे यह 'बुलेटिन' मे भी छप चुकी है ।

 

    इसके अलावा, जैसे तरह-तरहकी समष्टियां होती है वैसे ही तरह- तरहकी सामूहिक प्रार्थनाएं मी होती हैं । एक बेनाम जमघट, भीड़ होती

 

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है जो परिस्थितिके संयोगसे, आंतरिक सामंजस्यके बिना, परिस्थितिकी शक्तिके धक्केसे बनती है, जैसे, जब कोई राजा या कोई ऐसा व्यक्ति जो जन-समूहका ध्यान आकर्षित करता हो, एक संकटमय अवस्थामें हो, चाहे वह बीमार हों या दुर्घटनाग्रस्त, और जनता समाचार जानने और अपनी भावना प्रकट करनेके लिये उमड़ पडू रही हों : तो परिस्थितियों- के संयोगसे ही लोग इकट्ठे होते. है, अर्थात्, समान रुचि और भावनाके सिवाय कोई आंतरिक संबंध नहीं होता । ऐसा मी उदाहरण मिलता है कि सारी भिड़ उस व्यक्तिके आरोग्यके शिले अनायास प्रार्थना करने बैठ गयी जिसमें उसकी खास रुचि थी । स्वभावतः, वही भीड़ें बिलकुल भिन्न उद्देश्यसे, घृणाके उद्देश्यसे इकट्ठी हो सकती हैं और उनकी चीख-चिल्लज्हट भी एक तरहकी प्रार्थना होती है, विरोधी और विनाशकारी शक्तियोंके प्रति प्रार्थना । यह सहज गतिविधि होती है, न व्यवस्थित, न प्रत्याशित ।

 

    ऐसे व्यक्तियोंकी समष्टि भी होती है जो एक आदर्श या एक शिक्षा या कार्यकी चरितार्थताके लिये जमा होते हैं, इनका आपसमें व्यवस्थित संबंध, एक ही लक्ष्यका संबंध, एक ही श्रद्धा और संकल्पका संबंध होता है । ये सामूहिक प्रार्थना और ध्यानके अगुदुठानके लिये विधिवत् जमा हों सकते है, यदि उनका लक्ष्य उदात्त है, संगठन सुचारु ढंगसे हुआ है, उनका आदर्श प्रबल है, तो यह समष्टि अपनी प्रार्थनाओं या अपने ध्यानद्वारा दुनियाकी घटनाओंपर, अपने आंतरिक विकासपर और अपनी सामूहिक प्रगतिपर यथेष्ट प्रभाव डाल सकती है । निश्चय ही ऐसे समूह औरोंसे बहुत अधिक श्रेष्ठ होते है, पर उनमें भीडकी अंध शक्ति, चीडकी सामूहिक क्रिया नहीं होती । ये इन आवेगों-प्रवेगको अभिप्रेत और सचेतन व्यवस्थाकी शक्तिद्वारा बदल देते है ।

    सदा ही, धरतीपर ऐसे समूह रहे है जो काने-आपको इस तरह संगठित करते थे । इनमेंसे कइयोंका ऐतिहासिक जीवन रहा है, दुनिया- मे ऐतिहासिक कार्य रहा है, लेकिन आम तौरपर जनसाधारणमें इन्हें विशिष्ट व्यक्तियोंकी अपेक्षा ज्यादा सफलता नहीं मिली । इनपर हमेशा संदेह किया गया, ये आक्रमणों धौर अत्याचारोंके शिकार रहे और प्रायः ही बड़ी क्र्रतासे, बहुत अशानमय, अन्धकारमय तरीकोंमें भंग कर दिये गयें... । एक निश्चित लक्ष्यके लिये, किसी मान्यता, बल्कि सिद्धांत या मतको घेरकर, खड़े होनेवाले ऐसे अर्थ-धार्मिक, अर्ध-विरचित दत्त मी हुए हैं जिनका इतिहास बड़ा ही दिलचस्प रहा है । और निश्चय ही उन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रयाससे सामूहिक प्रगतिके लिये बहुत कुछ किया है । एक आदर्श संगठन है जिसे यदि ठीक-ठीक कार्यान्वित किया जाय तो

वह एक बहुत सबल ऐक्यका सृजन कर सकता है, यह ऐसे अवयवोंसे बना होगा जिनका एक ही लक्ष्य और एक ही संकल्प होगा और उनका आंतरिक विकास इतना हो चुका होगा कि लक्ष्यकी, उद्देश्यकी, अभीप्साकी -बगैर कार्यकी आंतरिक एकताको एक सुसंगत ठोस शरीर दे सकें ।

 

    सभी युगोंसे दीक्षा-केंद्रोंमें कम-या-अधिक प्रसन्नता देनेवाले तरीकेसे इसके लिये प्रयास किया है और गुह्य परंपराओंमें सदा ही इसे कर्मका अत्यधिक शक्तिशाली साधन बताया गया है ।

 

   यदि सामूहिक एकता व्यक्तिगत एकताकी संलग्नताको पा सकती तो वह व्यक्तिके कार्य और बलको और भी अधिक बढ़ा सकती ।

 

   साधारणत:, यदि बहुत-से व्यक्तियोंको इकट्ठा कर दिया जाय ता हर अलग-अलग व्यक्तिके गुणकी अपेक्षा दलका सामूहिक गुण कहीं कम होगा लेकिन, इसके विपरीत, एक पर्याप्त सचेतन और समन्वित संगठनद्वारा व्यक्तिगत कार्यकी क्षमताको बहुगुणित किया जा सकता है ।

 

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